बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास बीए सेमेस्टर-1 प्राचीन भारतीय इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास
प्रश्न- प्राचीन काल के सामाजिक संगठन को किस प्रकार निर्धारित किया गया व क्यों?
अथवा
महाकाव्य काल में भारतीय वर्ण व्यवस्थाओं की जटिलताओं की व्याख्या कीजिए।
अथवा
प्राचीन काल में भारतीय वर्ण व्यवस्था की जटिलताओं की व्याख्या कीजिए।
सम्बन्धित लघु प्रश्न
1. वर्ण व्यवस्था से आप क्या समझते हैं?
2. वर्ण के प्रकार बताइए।
3. वर्णाश्रम पर प्रकाश डालिए।
4. वर्ण व्यवस्था के विकास की विवेचना कीजिए।
उत्तर-
विश्व के सामाजिक इतिहास में भारतीय वर्ण व्यवस्था का अपना अलग स्थान है। प्राचीन भारत में इस व्यवस्था की स्थापना मानव की मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर की गयी थी। इस व्यवस्था का उद्देश्य सामाजिक व्यवस्था और संगठन को स्थायित्व प्रदान करना था। प्राचीन भारत में इस व्यवस्था ने भारतीय अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने में भी योगदान दिया। चारों वर्णों में अलग-अलग कार्यों के निर्धारण के फलस्वरूप समाज में संघर्ष की स्थिति नहीं उत्पन्न होने पाती थी।
प्राचीन भारतीय चिन्तकों ने अपने मानवीय जीवन को सुखी व समृद्धशाली बनाने के लिए इस तरह बांटा ताकि वे अपना जीवन आनन्दपूर्वक बिता सकें और उन्हें किसी पर आश्रित रहना न पड़े। चाहे व्यक्ति किसी वर्ण का ही क्यों न हो। उनकी व्यवस्था के अनुसार प्राचीन आर्य ऐसे समाज की रचना करना चाहते थे जिससे सभी सुखी हों, सभी को समान अवसर मिले और सभी उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हों। यह व्यवस्था इस बात का प्रमाण है कि तत्कालीन व्यवस्था ही उच्चकोटि की थी।
वर्ण व्यवस्था
(Varna System)
वर्ण व्यवस्था वैदिक काल के आर्यों की महान देन है क्योंकि आर्यों ने अपने जीवन को नियमित बनाने हेतु चार वर्णों में बांटा था ताकि सृष्टि का विधान, यम-नियम के साथ चल सके। इस व्यवस्था के अनुसार सम्पूर्ण समाज को चार वर्गों में बांटा गया था -
1. ब्राह्मण
2. क्षत्रिय
3. वैश्य तथा
4. शूद्र।
विभिन्न प्राचीन धर्मग्रन्थों में वर्ण व्यवस्था के उद्भव एवं विकास के सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार के वर्णन हैं जो निम्न प्रकार है-
1. वेद
भारतीय सामाजिक व्यवस्था पर प्रकाश डालने वाला सबसे प्रमुख ग्रन्थ वेद है। वेदों को विचारकों ने अलौकिक सत्ता की देन माना है। ऋग्वेद के पुरुष सुक्त अनुसार ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, कटि से वैश्य और पैरों से शूद्र वर्ण की उत्पत्ति हुई है। लोग अपने ही वर्ण में विवाह करते थे ऐसी प्रथा थी।
2. ब्राह्मण ग्रन्थ
ब्राह्मण ग्रन्थ के मन्त्रों से इस बात का पता चलता है कि उस समय चार वर्ण विकसित हो चुके थे। तैत्तरीय ब्राह्मण ग्रन्थ में ब्राह्मण क्षत्रिय तथा वैश्य के लिए अलग-अलग बलि की प्रथायें थीं। शूद्रों में अनार्य बलि की प्रथायें थीं। उनको अनार्य कहकर पुकारा जाता था। शतपथ ब्राह्मण में ऐसा कहा गया है कि चारों वर्णों की उत्पत्ति दैवी अग्नि से हुई है। विवाह के नियम कठोर नहीं थे।
3. उपनिषद्
यद्यपि उपनिषद् उस समय के दार्शनिक ग्रन्थ माने जाते हैं, तथापि उनमें वर्णों के विषय में पर्याप्त उल्लेख किया गया है। वृहदारण्यकोपनिषद से चारों वर्णों की उत्पत्ति के संबंध में विषय-वस्तु मिलती है। इससे क्षत्रिय वर्ण की अच्छी दशा का ज्ञान होता है।
4. स्मृतियों के अनुसार
मनुस्मृति के प्रथम अध्याय के पांचवें श्लोक में लिखा है कि उस समय समाज में चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य एवं शूद्र थे। इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा से मानी गयी है। इन वर्णों में ब्राह्मण श्रेष्ठतम तथा शूद्र निम्नतम थे। अपने वर्ण से हटकर निम्न वर्ण से विवाह करने पर जो सन्तान पैदा होती थी उसको वर्णशंकर कहा जाता था। महाभारत में शान्ति पर्व में उल्लिखित भारद्वाज तथा भृगु ऋषियों के पारस्परिक संवादों से ज्ञात होता है कि उस समय वर्ण व्यवस्था थी। वर्ण भेद, रंग भेद पर ही आधारित था। भृगु के अनुसार पहले एक ही वर्ण था, वह था ब्राह्मणों का, किन्तु बाद में ब्राह्मणों ने अपने कर्म और अधिकार के कारण अन्य वर्ण बना लिये।
6. भगवद्गीता
गीता के चतुर्थ अध्याय में अर्जुन को उपदेश देते हुए श्रीकृष्ण ने कहा है कि हे अर्जुन गुण और कर्मों के विभाजन से ब्राह्मण और वैश्य तथा शूद्र मेरे बनाये हुए हैं। उदाहरणार्थ द्रोणाचार्य और कृपाचार्य ने क्षत्रिय धर्म स्वीकार किया था लेकिन वे क्षत्रिय नहीं कहलाये।
7. रामायण
रामायण के अनुसार वर्ण धर्म के अन्तर्गत ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य समान धर्म के थे। ब्राह्मण का कार्य वेदों का अध्ययन, व्रत, यज्ञ करना, दान देना तथा लेना था, जबकि शूद्रों का कार्य तीनों वर्णों की सेवा करना था। वे यज्ञ में उपस्थित हो सकते थे परन्तु यज्ञ सम्पादन में सम्मिलित नहीं हो सकते थे।
8. विदेशी विचारकों के मत
मेगस्थनीज तथा ह्वेनसांग के यात्रा विवरणों से भारतीय वर्ण व्यवस्था के सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है। मेगस्थनीज ने भारत में सात जातियों का उल्लेख किया है। ह्वेनसांग ने अपनी यात्रा विवरण में लिखा है कि जातियां अपनी सीमा से हट कर विवाह नहीं कर सकती थीं। ब्राह्मण धर्म की रक्षा करता था, क्षत्रिय राजकाज देखते थे, वणिक कृषि तथा व्यापार करता था तथा शूद्र सभी वर्णों की सेवा करता था।
वर्ण व्यवस्था की प्राचीनता
जाति प्रथा के सम्बन्ध में विद्वानों में बड़ा मतभेद है परन्तु सभी विद्वान इस बात पर एक मत हैं कि यह एक अति प्राचीन व्यवस्था है। प्रो. रैप्सन के अनुसार जाति प्रथा का प्रादुर्भाव आर्यों और अनार्यों के बीच गोरे और काले रंग को लेकर हुआ। आरम्भ में केवल दो वर्ग थे। आर्य और अनार्य धीरे-धीरे अनार्यो में जो काले रंग के थे शूद्र कहलाने लगे।
डॉ. श्याम शास्त्री के अनुसार “प्रागैतिसाहिक काल में जाति के स्थान पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार वर्ग थे। शायद वर्ण ज्ञान का प्रयोग पहले पहल सभी प्रकार की जातियों के लिए होता था और शायद विभिन्न रंगों के वस्त्रों को धारण करने वाले वर्गों के आधार पर ही वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति हुई।
उदाहरणार्थ ब्राह्मणों के सफेद, क्षत्रियों के लाल, वैश्यों के पीले तथा शूद्रों के काले वस्त्र हुआ करते थे।
वर्ण व्यवस्था की प्राचीनता का प्रमाण हमें ऋग्वेद से प्राप्त होता है।
ब्राह्मणोस्य मुखमासीद बाद्दशेजन्यः कृतः
उरु तदस्य यद् वैश्य पद्भ्यां शूद्रो अजायत।
इसके आधार पर आदि पुरुष ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, बाहों से क्षत्रियों, पेट से वैश्यों तथा पैरों से शूद्रों की उत्पत्ति बतायी जाती है। यह भी बताया जाता है कि कार्य के विभाजन के आधार पर मुख से पढ़ना- पढ़ाना, बाहों से रक्षा का कार्य करना, पेंट से भरण-पोषण अर्थात् व्यवसाय और पैर से अभिप्राय चारों वर्णों को पूर्ण सहयोग देने से था।
जाति प्रथा का विकास
प्राचीनकाल में जाति व्यवस्था को सरलता से बदला जा सकता था, कोई भी व्यक्ति एक जाति से दूसरी जाति में आ जा सकता था। इसके बन्धनों पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था। प्रख्यात् धनुर्विज्ञान के ज्ञाता परशुराम जन्मतः ब्राह्मण थे किन्तु कर्म से क्षत्रिय थे। विश्वामित्र जन्म से क्षत्रिय राजा थे परन्तु कर्म से ब्राह्मण ऋषि हुए। ऋग्वेद में एक जगह पर कहा गया है- “मैं शास्त्रों का रचयिता हूँ, मेरा पिता वैद्य है, मेरी माँ चक्की पीसती है, मेरा परिवार विभिन्न कामों में लगा है।"
समय के साथ-साथ जाति प्रथा दृढ़ होती गई और एक जाति से दूसरी जाति में जाना असम्भव हो गया। वर्णों की जातियाँ तथा उपजातियाँ बन गयीं। प्रत्येक जाति का स्थान निश्चित हो गया।
वर्ण की उत्पत्ति के सिद्धान्त :
वर्ण व्यवस्था के निम्न सिद्धान्त माने गये हैं-
1. गुण तथा कर्म
प्राचीनकाल में जाति आधार जन्म न होकर उस मनुष्य के गुण तथा कर्म हुआ करते थे। स्वतः भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है, मैंने ही संसार की समुचित व्यवस्था अर्थात् संरचना हेतु चार वर्णों का निर्माण किया है जो गुण और कर्म पर निर्भर है।
चातुर्वणामया सृष्टं गुण कर्म विभागशः
ऋग्वेद में भी एक स्थान पर लिखा है कि -
"न दासो नार्यो महित्वा व्रत निभाय।"
2. जन्म का आधार
ज्यों-ज्यों सामाजिक परिस्थितियाँ बदलती गयीं त्यों-त्यों जाति व्यवस्था में कठोरता आती गयी। परिणामस्वरूप एक जाति से दूसरी जाति में जाना कठिन हो गया। वैदिक साहित्य से यह ज्ञात है कि ब्राह्मण के घर में जन्म लेने से ब्राह्मण ही कहलायेगा।
त्रिषु वर्गेषु जातोहि ब्राह्मणो भवेत।
इस प्रकार हम देखते हैं कि कालान्तर में यह व्यवस्था जन्म के अनुसार निर्धारित की गई, परन्तु कर्म और गुण के आधार पर तिरोहित नहीं हुआ। मनु ने स्वयं भी कहा है-
“जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्चते।
3. आदि पुरुष द्वारा निरूपित वर्ण व्यवस्था -
ऋग्वेद के अनुसार चारों वर्णों की उत्पत्ति ब्रह्मा के चारों अंगों से हुई। ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, बाहों से क्षत्रिय, पेट से वैश्य तथा पैरों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई।
लेकिन देखा जाये कि यह व्यवस्था यह बतलाती है कि शूद्र का निचले अंग से सम्बन्ध होने पर भी उसका विशिष्ट महत्व है। जिस प्रकार बिना स्तम्भ के भवन नहीं टिक सकता उसी प्रकार बिना पैर के मानव जीवन निरर्थक है। अतः शूद्र समाज के आधारभूत स्तम्भ थे, जिससे समाज की सेवा, पालन तथा रक्षा होती थी। क्षत्रिय रक्षा करने वाला और ब्राह्मण को उपदेशक और शिक्षा के रूप में माना गया था।
वर्णों के प्रकार एवं कार्य
प्राचीन वर्ण व्यवस्था से समाज के संपूर्ण कार्य इतनी सरलता से होते थे कि किसी प्रकार कार्यों में रुकावट नहीं होती थी -
1. ब्राह्मण
मनुष्य योनि में ब्राह्मण महान देव तुल्य था। उसकी आध्यात्मिक शक्ति ऐसी विलक्षण थी कि यदि राजा उसके अधिकारों के प्रति उदासीन होने का प्रयत्न करते तो वह तत्काल ही राजा को उसकी सेना सहित नष्ट-भ्रष्ट कर सकता था। विधान में ब्राह्मण ने अपने को महान सुविधाओं का अधिकारी बताया तथा उसने प्रत्येक दृष्टिकोण से अग्रगण्यता, सम्मान एवं प्रतिष्ठा का भोग किया। यहाँ तक बौद्ध धर्म ग्रन्थ भी पवित्र एवं कर्त्तव्यपरायण ब्राह्मण की महानता को स्वीकार करते हैं। यद्यपि वे इनके निरर्थक अधिकारों को नहीं मानते थे तथा निरन्तर ब्राह्मण की अपेक्षा क्षत्रिय को अधिक महत्व देते थे।
ब्राह्मणों की उत्पत्ति मुख से मानी गयी है। इसका मुख्य कार्य वेद पढ़ना-पढ़ाना, यज्ञ करना- कराना तथा दान देना तथा लेना था। रामायण तथा महाभारत में इनके कार्यों का व्यापक उल्लेख मिलता है।
बौद्ध सूत्रों में दो प्रकार के ब्राह्मणों का परिचय मिलता है, प्रथम वे विद्वान् ब्राह्मण जो आर्यों में प्रचलित समस्त संस्कारों का पालन करते थे तथा महान सम्मान प्राप्त करते थे, द्वितीय ऐसे भी गरीब ब्राह्मण थे जो ज्योतिष एवं टोना-टुटका द्वारा अपना जीविकोपार्जन करते थे तथा समाज में अपेक्षाकृत कम सम्मानित थे।
वर्ण व्यवस्था की जटिलता के कारण ब्राह्मणों ने शीघ्र ही अपनी जातीय पवित्रता को नष्ट कर दिया तथा कहा जाता है कि आर्य संस्कृति के प्रसार के साथ ही आदिवासी तांत्रिकों तथा वैद्यों ने ब्राह्मणों के वर्ण में पदार्पण करने का प्रयत्न वैसे ही किया उसे आदिवासी सरदार निश्चित रूप से योद्धाओं की श्रेणी में सम्मिलित हो गये थे। अतः यह भली प्रकार संभव है कि हड़प्पा संस्कृति का मौलिक हिन्दू धर्म अन्ततः आर्य धर्म में रूपान्तरित हो गया।
व्यावसायिक पुरोहितों का विभिन्न प्रकार तथा श्रेणियाँ थीं, प्रारम्भिक युग में (वैदिक काल ) ऋषियों का उल्लेख मिलता है जिन्होंने वैदिक मंत्रों की रचना की जबकि यज्ञ सम्बन्धी संस्कारों में अनेक विशिष्ट कर्त्तव्य-संपन्न ऋचाओं की आवश्यकता थी जिनमें होम, उदगात्र तथा संस्कारों के समय शारीरिक कार्य को संपन्न कराने वाले अधिवर्य सम्मिलित थे। ब्राह्मण शब्द का मौलिक अर्थ उस व्यक्ति से है जिसमें ब्रह्म शक्ति विद्यमान हो अर्थात् वह उस प्रकार की रहस्यपूर्ण ऐन्द्रजालि शक्ति से परिपूर्ण हो जैसाकि पालीनीशिमा के शब्द 'मन' से वर्तमान मनुष्य शरीर विज्ञान शास्त्री विस्तृत रूप से परिचित थे। यह शब्द सर्वप्रथम विशेष रूप से प्रशिक्षित पुरोहित के लिए प्रयुक्त किया गया था जो संपूर्ण यज्ञ का अधिनायकत्व करता था तथा जो संस्कार की सूक्ष्म त्रुटियों के कारण किसी भी दुष्प्रभाव का अपनी ऐन्द्रजालिक शक्तियों के द्वारा प्रतिकार करने को तत्पर रहता था। ऋग्वेदीय युग के अन्तिम चरण में यह शब्द समस्त पुरोहित श्रेणी के सदस्यों के लिए प्रयुक्त होने लगा था।
उत्तर वैदिक काल में ब्राह्मणों को गोत्रों में विभाजित कर दिया गया था, यह वह प्रणाली थी कि जिसकी अनुकृति दूसरी श्रेणियों ने भी आंशिक रूप से की थी और जो आज तक प्रचलित है। इसके पश्चात् ब्राह्मण श्रेणी ने अनेक जातियाँ बनायीं जो भारतीय विवाह तथा सामान्य प्रथाओं द्वारा परस्पर सम्बन्धित थीं। इससे भी अधिक विभाजन शाखाओं में था जो वेदों की गेयता पर आधारित था इसको सम्बन्धित कुटुम्ब ने स्वीकार कर लिया था।
प्रायः ब्राह्मण राजा की संरक्षता में रहता था और उसे अनुदान के रूप में कर मुक्त भूमि प्रदान कर दी जाती थी जो कृषकों द्वारा की जाती थी और वे राजा के स्थान पर ब्राह्मण को कर देते थे परन्तु भू-स्थानी ब्राह्मण भी थे जो किराये के श्रमिकों अथवा दासों द्वारा बड़े क्षेत्रों में कृषि कराते थे। धार्मिक ब्राह्मण का राजदरबार में अधिक सम्मान होता होगा। अतः ब्राह्मण वेद तथा ज्ञान सम्बन्धी अन्य शाखाओं में गुरुओं के रूप में योग्यता प्राप्त थे।
अनेक ब्राह्मण प्रत्येक युग में वास्तविक धार्मिक जीवन व्यतीत करते रहे। कालिदास कृत शकुन्तला में ऐसे पवित्र ब्राह्मणों की बस्ती का अद्भुत चित्र उपस्थित किया गया है, जो यद्यपि साधारण जीवन व्यतीत करते थे परन्तु वन की कुटियों में अत्यधिक कठोर नियमों का पालन नहीं किया जाता था, जहां पर वनचारी मृग भी दयालु सन्यासियों के मध्य निर्भय रहते थे। ब्राह्मण एकान्तवासी संन्यस्थ जीवन व्यतीत करते थे तथा मध्यकालीन ब्राह्मणों ने बौद्ध धर्म की रूपरेखा के अनुसार मठ-व्यवस्था का बीजारोपण किया था।
स्मृति साहित्य में आपद् धर्म 'ऐसी परिस्थिति में ब्राह्मणों को प्रत्येक प्रकार के व्यापारों एवं व्यवसायों की अनुमति प्रदान कर दी गई थी। अनेक ब्राह्मण महत्वपूर्ण राजकीय पदों पर नियुक्त किये गये थे तथा अनेक राजसी कुटुम्ब मूलतः ब्राह्मण थे। सामान्यतः नीति ग्रन्थों ने ब्राह्मणों के लिए कर्म निषेध बताया है।
अधिक महत्ता होने पर भी प्रायः ब्राह्मण व्यंग्य का लक्ष्य बना रहता था। यहाँ तक कि ऋग्वेद वर्षाकाल के आरम्भ में दादुर ध्वनि की तुलना ब्राह्मणों के एक स्वता युक्त वेद पाठ से की गई है। यद्यपि यहाँ पर किसी व्यंग्य की ओर लक्ष्य करने का उद्देश्य नहीं था, जो भी बौद्ध साहित्य में ब्राह्मणों के सम्मान पर प्रत्यक्ष रूप से आक्रमण किये गये, जो ब्राह्मणो के दृष्टिकोण के अधिक विरोधी प्रतीत होते हैं। परन्तु प्रथम अथवा द्वितीय शताब्दी की अश्वघोष द्वारा लिखित 'बज्र सूची' नामक बौद्ध धर्म की संक्षिप्त पुस्तक में पुरोहितों के अधिकार पर तथा अप्रत्यक्ष रूप से संपूर्ण वर्ण व्यवस्था पर शक्तिशाली एवं तर्कपूर्ण ढंग से आक्रमण किया गया है। वस्तुतः ब्राह्मणों के अधिकारों की प्रायः उपेक्षा की गयी तथा पूर्णरूपेण उसके अधिकार प्रतिबन्ध रहित न थे।
2. क्षत्रिय
क्षत्रिय की विराट पुरुष के बाहों से उत्पन्न माना गया है। इसका कार्य होता था समाज की रक्षा करना। यज्ञों की समस्त सामग्री को इकट्ठा करना इनका कर्त्तव्य होता है। यह वर्ण शारीरिक शक्ति से शक्तिशाली होने के कारण समाज की कठिनाइयों को दूर करने में समर्थ थे। वे राजकीय कार्यों में अपराधियों एवं अधर्मियों को दंड देना उनका धर्म था।
वैदिक युग में राजन्य तथा बाद में 'क्षत्रिय' के नाम से प्रसिद हुए। क्षत्रिय का सैद्धान्तिक कर्त्तव्य सुरक्षा था जिसमें युद्ध के समय में लड़ना तथा शान्तिकाल में शासन करना सम्मिलित था। आरम्भ में यह वर्ण प्रायः स्वयं को ब्राह्मण की अपेक्षा अधिक महत्व देता था, आत्रेय ब्राह्मण के एक अंश में यह अधिकार स्पष्ट है।
बौद्ध परम्परा के अनुसार जिस युग में क्षत्रिय सर्वश्रेष्ठ समझे जाते थे, तो उन्होंने क्षत्रिय के रूप में जन्म ग्रहण किया। ऐतिहासिद्ध बुद्ध एक क्षत्रिय थे तथा उनके अनुगामियों को स्पष्ट रूप से श्रेणीगत श्रेष्ठता में कुछ शंकायें थीं, पाली धर्मग्रन्थों ने जिन स्थलों पर चार वर्णों का उल्लेख किया गया है, वहाँ प्रायः क्षत्रिय का नाम प्रथम आता है।
जिस प्रकार राजा के गर्व में अवरोधक ब्राह्मण होते थे उसी प्रकार शक्ति संपन्न राजा सदैव ब्राह्मणों के अभिमान का अवरोधक होता था। जनश्रुति है कि ऐसे अनेक ब्रह्मद्रोही राजा थे, जिनकी अन्त में दुर्गति हुई तथा परशुराम का आख्यान जिन्होंने अपवित्रता के कारण संपूर्ण क्षत्रिय श्रेणी को समाप्त कर दिया था। बौद्धकाल के पूर्व दोनों श्रेणियों के मध्य भयंकर संघर्ष के संस्मरण से युक्त हैं। मौर्यकाल के उपरान्त ब्राह्मणों की सैद्धान्तिक स्थिति अधिकांशतः भारत में दृढ़ हो गयी थी, परन्तु वस्तुतः क्षत्रिय फिर भी उसके समान अथवा उससे श्रेष्ठ था।
प्राचीन भारत में महान सम्राटों से साधारण सरदारों तक के समस्त योद्धा वर्ग की नियुक्ति सभी जातियों तथा वर्गों से होती थी तथा सभी भारतीय आक्रांताओं से लेकर मुसलमानों के आगमन तक इसी प्रकार सभी योद्धाओं को सामाजिक क्रम में स्थान दिया गया था। मनु ने आर्य सभ्यता के निकट रहने वाले लोगों का उल्लेख, जिनमें यूनानी ( यवन), शक और पल्हव सम्मिलित हैं क्षत्रियों के नाम से किया है, जो पवित्र विधान के प्रति उदासीन होने के कारण मर्यादाच्युत हो गये थे परन्तु जो जीवन के रूढ़िवादी नियमों का पालन तथा पश्चातापस्वरूप उचित यज्ञों को संपन्न करने के पश्चात् पुनः आदि जाति में सम्मिलित किये जा सकते थे। यह सुविधा किसी भी विजयी जाति को प्राप्त हो सकती थी तथा राजपूत जो उत्तरकालीन युग में सर्वोत्कृष्ट क्षत्रिय थे, निस्सन्देह अधिकांश रूप में ऐसे ही आक्रान्ताओं की सन्तान थे।
क्षत्रियों ने कुछ विशेष सुविधाओं की मांग की है। वे प्राचीन रीतियों का पालन करते रहे परन्तु रूढ़िवादी ढंग से नहीं वरन ऐसी लगन के साथ नीतिज्ञ ब्राह्मणों को उन्हें नैतिक स्तर प्रदान करने के लिए विवश होना पड़ा। इस प्रकार क्षत्रियों को इच्छानुसार किसी भी स्त्री से विवाह करने की अनुमति दे दी गयी थी जैसाकि गुप्त प्रेम तथा स्वयंवरों द्वारा होता था। जिसमें कोई कन्या एकत्र प्रणय प्रार्थियों में से किसी को अपने पति के रूप में वरण कर सकती थी, ब्राह्मणों की भांति वे सदैव अपने आदर्श कर्तव्यों का पालन करते हुए जीवन यापन नही करते थे। आपद् धर्म के नियमों को पालन करने की अनुमति उन्हें भी प्राप्त थी तथा ऐसे अनेक उल्लेख प्राप्त हैं कि योद्धा वर्ग के लोग सैनिक पद को त्याग कर व्यापारी तथा व्यवसायी बन गये।
3. वैश्य
वैदिक काल में यद्यपि वैश्य अथवा व्यापारी श्रेणी पुरोहित पद की सेवाओं था यज्ञोपवीत धारण करने की अधिकारी हो गई तथापि ब्राह्मणों और क्षत्रियों के पश्चात् ही उनकी गणना तृतीय श्रेणी में की जाती थी। अत्रेय ब्राह्मण के एक अंश में वैश्य का वर्णन आया है 'दूसरों को कर देने वाला, दूसरों पर आश्रित रहने वाला तथा दमन किये जाने वाला के रूप में किया गया है। प्रारम्भिक ब्राह्मण साहित्य के अन्य अंशों में उसका उल्लेख एक भाग्यहीन तथा दलित कृषक अथवा एक सामान्य व्यापारी के रूप में किया गया है जिसको श्रेष्ठ वर्ग लाभ के स्रोत के अतिरिक्त कुछ अन्य न मानता था।
मनु के अनुसार वैश्य का मुख्य कर्त्तव्य पशुपालन था, जो सृष्टि के आरम्भ में उसके अधिकार में दिये गये थे। इसी श्रेणी का जन्म प्रत्यक्ष रूप में ऋग्वेदकालीन सामान्य कृषक परिवार में हुआ था परन्तु मनुस्मृति की रचना से पूर्व उनके अनेक अन्य कर्त्तव्य निर्धारित थे। चारों वर्णों में निम्नतम शूद्रों ने उस समय तक कृषि व्यवसाय प्रारम्भ कर दिया था तथा मनु ने वैश्यों के निमित्त पशुपालन तथा कृषि के अतिरिक्त उनके उचित व्यवसायों की अनुमति दे दी थी। आदर्श वैश्य के रत्नों, धातुओं, वस्त्रों, सूत, मसालों, सुगन्धियों और अन्य व्यापारिक वस्तुओं का पूर्ण ज्ञान होता था। वस्तुतः यह वर्ण प्राचीन भारतीय व्यवसायी था।
यद्यपि ब्राह्मण साहित्य ने वैश्य को अल्प अधिकार तथा साधारण स्तर प्रदान किया है। तथापि बौद्ध और जैन ग्रन्थों में जिसकी विधि कुछ शताब्दियों के पश्चात् तथा जिसकी उत्पत्ति स्थान पूर्व में है, यह दिखाया गया है कि वैश्य का व्यापारिक रूप सदैव दमन नहीं किया जाता था। इन ग्रन्थों में अनेक संपन्न व्यापारियों का वर्णन किया गया है। उनमें एक आदर्श वैश्य का उल्लेख एक दुःखी करदाता पशुपालक के रूप में किया गया है। अपितु 80 लाख पणों के स्वामी अष्टकोटि विभव के रूप में किया गया है। संपन्न वैश्यों का सत्कार राजाओं के द्वारा किया जाता था। बौद्ध तथा जैन जैसे उदार धर्मों के उत्कर्ष का मुख्य रूप से स्वागत करने वाले क्षत्रिय नहीं थे, अपितु वैश्य ही थे। उन्होंने उस समय तक कम से कम मगध तथा कौशल क्षेत्रों में छोटे-छोटे मध्यवर्गीय नागरिकों की स्थापना कर ली थी जो निःस्सन्देह संख्या में कम परन्तु अत्यधिक महत्वपूर्ण थे। शुंगकालीन अनेक शिलालेखों में वैश्य व्यापारियों तथा कुशल कलाकारों की ओर से धार्मिक कार्यों के निमित्त विशेष रूप से बौद्ध धर्म के लिए असंख्य दानों का महत्व मिलता है।
4. शूद्र
आत्रेय ब्राह्मण के अनुसार यदि वैश्य को इच्छानुसार पीड़ित किया जा सकता था तो शूद्र उससे भी अधिक भाग्यहीन था। वह दूसरों का सेवक होता था, जिसको इच्छानुसार वहिष्कृत किया जा सकता था अथवा इच्छानुसार उसका वध किया जा सकता था।
शूद्र द्विज नहीं होते थे, उनके लिए अभिसंस्कृति के अंतर्गत प्रत्येक संस्कार का निषेध किया गया था। यद्यपि अर्थशास्त्र के अनुसार शूद्र वर्ण को पूर्णतः आर्य माना गया है। समाज में इन्हें द्वितीय श्रेणी का व्यक्ति माना गया है। शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति अस्पष्ट है तथा ऋग्वेद में इसका प्रयोग केवल एक स्थान पर हुआ है। ब्राह्मण विचारधारा में जटिलता में वृद्धि होने के साथ-साथ जिन-जिन दलों ने रूढ़िवादी रीतियों को स्वीकार करना तथा उन प्रथाओं का पालन करना जो समयानुसार महत्वहीन हो गयी थीं, अस्वीकार कर दिया था, उनकी गणना शूद्रों में होने लगी।
शूद्र दो प्रकार के होते थे- पवित्र अथवा अनिर्वासित तथा निर्वासित द्वितीय श्रेणी के शूद्र समाज से पूर्णतः पृथक समझे जाते थे तथा वास्तव में जिनको पाश्चात् काले के अछूत नामधारियों के महान वर्ग से भिन्न नहीं किया जा सकता था। इनकी भिन्नता शूद्र समुदाय की रीतियों तथा उस वर्ग में प्रचलित व्यवसाय के आधार पर की गई है। ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार शूद्र का मुख्य कर्त्तव्य अन्य तीनों वर्णों की सेवा करना था। उसे अपने स्वामी के अवशिष्ट भोजन को ग्रहण करना, उतारे हुए वस्त्रों तथा उसकी पुरानी सामग्री का प्रयोग करना पड़ता था। यदि कभी-कभी उसको संपन्न होने का अवसर भी प्राप्त होता, तो उसको ऐसा करने की अनुमति नहीं दी जाती थी, क्योंकि धनोपार्जन करने वाला शूद्र ब्राह्मण के लिए कष्टप्रद होता था। उसके गिने चुने अधिकार थे तथा विधान के अंतर्गत उसके जीवन का मूल्य केवल नाममात्र का था। शूद्र का वध करने वाले ब्राह्मण को उतना ही प्रायश्चित करना पड़ता था जितना कि बिल्ली अथवा कुत्ते के वध पर शूद्रों की वेदमंत्रों के श्रवण अथवा उच्चारण करने की आज्ञा नहीं थी। जिस स्थान पर शूद्र बहुसंख्यक होते थे, उसे अधिक कष्ट सहन करने पड़ते थे।
इसी प्रकार भाग्यहीन शूद्र के लिए सुख के अवसर कम थे। जो अपने से श्रेष्ठ श्रेणियों की अरुचिकर सेवा के कठोर कार्यों के अतिरिक्त अन्य कार्यों को संपन्न करने में असमर्थ था तथा जिसका एकमात्र यही आकांक्षा रहती थी कि उसका पुनर्जन्म उच्चतर सामाजिक श्रेणी में हो। इस बात के पर्याप्त प्रमाण है कि शूद्र पवित्र विधान में निर्धारित नियमों के अनुसार सदैव दीन तथा दुःखी जीवन ही नहीं व्यतीत करते थे, ऐसा ही उल्लेख है कि शूद्र उत्पादन तथा व्यापार में भी संलग्न थे। मौर्यकाल तक अनेक शूद्र स्वतंत्र कृषक हो गये थे। हिन्दू समाज में शूद्र स्थान पृथक था तथा उच्चतर श्रेणियों की रीतियों का अनुसरण करने के लिए उसे प्रोत्साहित किया जाता था। यद्यपि वह वेदों का श्रवण नहीं कर सकता था तथापि उसको महाकाव्यों एवं पुराणों के अध्ययन की अनुमति प्राप्त थी। भक्ति भाव से पूर्ण धर्म के प्रति उसका एक महान कर्त्तव्य था जो मौर्यकाल के पश्चात् और भी अधिक प्रचलित हो गया और अन्ततः उसने प्राचीन रीतियों को आच्छादित कर दिया।
श्रीमद्भगवतगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं अपने भक्त शूद्रों को पूर्ण मुक्ति प्रदान करने का वचन दिया। अनेक मध्यकालीन समुदायों के दृष्टिकोण से श्रेणी तथा जाति का सम्बन्ध आत्मा के स्थान पर शरीर से था तथा मनुष्य मात्र की मौलिक समानता को प्रकट करने वाले श्लोक द्रविड़ों के भक्ति साहित्य तथा उत्तरकालीन स्थानीय भाषाओं के धार्मिक साहित्य में सुलभ हैं। बौद्ध तथा जैन धर्मों में सैद्धान्तिक रूप से धार्मिक मामलों में कोई भेदभाव नहीं किया, यह जानकारी मिलती है कि शूद्र राजा भी हुए तथा अनेक शूद्र नीति ग्रन्थों द्वारा आरोपित अवरोधों के होने पर भी समृद्धिशाली रहे होंगे।
5. अछूत
शूद्र निम्न स्तर पर उन लोगों के प्रतिनिधि थे जो उत्तर काल में अछूत, जाति बहिष्कृत, परिगणित अथवा अनुसूचित कहलाये, बौद्ध साहित्य तथा प्रारम्भिक धर्मसूत्रों से ज्ञात है कि ईसा से कई शताब्दी पूर्व ऐसे लोगों के दल विद्यमान थे जो यद्यपि आर्यों की सेवा अनेक नीचता गन्दे कार्यों के रूप में करते थे। फिर भी उन्हें आर्य जाति की परिधि से पूर्णतः बाहर समझा जाता था। कभी-कभी वे पंचम के नाम से भी पुकारे जाते थे। परन्तु अधिकांश विद्वानों ने इस शब्द का प्रयोग इसलिए अस्वीकार कर दिया क्योंकि उन्होंने इस तथ्य पर बल दिया कि वे आर्यों की सामाजिक व्यवस्था से पूर्णतः पृथक कर दिये गये थे। चाण्डाल को आर्यों के नगर अथवा ग्राम में रहने की आज्ञा नहीं थी। परन्तु उसे सीमा के बाहर विशेष रूप से निवास स्थानों में रहना पड़ता था। यद्यपि कुछ चाण्डालों के जीविका के अन्य साधन थे, परन्तु सैद्धान्तिक रूप से उनका मुख्य कार्य पशुओं के मृत शरीरों को ले जाना तथा उनका दाह संस्कार करना था तथा वे अपराधियों को फांसी देने के लिए जल्लाद के रूप में भी कार्य करते थे।
अहिंसा की भावना की वृद्धि के साथ-साथ बहिष्कृतों अथवा अछूतों के कुछ वर्ग अस्पृहणीय स्थिति को प्राप्त हुए प्रतीत होते हैं। उदाहरण स्वरूप निषाद जो एक आखेटक था, मछुओं की एक जो कैवर्त कहलाती थी तथा चर्मकार जो करावर कहलाते थे। पुक्कस (पौलस) जो बौद्ध साहित्य में मेहतर के रूप में उपस्थित किये गये हैं। मदिरा बनाने तथा उसके बेचने के कारण ही स्तर से नीचे गिर गये होंगे। वेण तथा रथकार जैसी निम्न श्रेणियों के पतन का कारण बताना अधिक कठिन है। प्राचीन वैदिक काल में रथकार अत्यधिक सम्मानित कलाकार थे, परन्तु शीघ्र ही वे अपवित्र शूद्र अथवा बहिष्कृत जाति के स्तर पर पठित हो गये।
ईसा-सन् के आरम्भ में बहिष्कृत जातियों ने स्वयं अपनी जाति धर्म सत्ता विकसित कर ली थी तथा उन्होंने अपने में से भी कुछ को बहिष्कृत कर दिया था। मनु, चाण्डाल तथा निषाद के मध्य एक वर्ण शंकर अन्त्यावासिन का उल्लेख करते हैं जिनसे चाण्डाल भी घृणा करते थे। उत्तरकालीन भारत में प्रत्येक अछूत यूथ का यह अनुमान था कि कुछ अन्य यूथ उनसे कुछ निम्न स्तर पर हैं तथा इस वर्गीकरण का प्रारम्भ स्पष्टतः प्राचीनकाल में ही हो गया था।
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- प्रश्न- "असीरिया की कला में धार्मिक कथावस्तु का अभाव है।' स्पष्ट कीजिए।
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- प्रश्न- प्राचीन मिस्र की सभ्यता के विषय में आप क्या जानते हैं? मिस्र का इतिहास जानने के प्रमुख साधन बताइये।
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- प्रश्न- मिस्र का समाज कितने भागों में विभक्त था? स्पष्ट कीजिए।
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- प्रश्न- प्राचीन चीन की सामाजिक व्यवस्था का उल्लेख कीजिए।
- प्रश्न- चीनी सभ्यता के भौगोलिक विस्तार का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- चीन के फाचिया सम्प्रदाय के विषय में बताइये।
- प्रश्न- चिन राजवंश की सांस्कृतिक उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।